ढाई – तीन महीनों की भागम-भाग और भारी गहमा गहमी के बाद आखिरकार देश की अठारहवीं लोकसभा का स्वरूप जनता के सामने आ गया । भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए सरकार के गठन के साथ नरेंद्र मोदी ने नए कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री पद की शपथ ली । सारे चुनावी अनुमानों को ध्वस्त करने वाले चुनाव परिणामों ने सभी को हतप्रभ कर दिया । चुनावी सर्वे टीम, मीडिया हाउसेस, राजनीतिक विश्लेषक, राजनीतिक दल सभी के अनुमान ज़मींदोज़ हो गए । तीन दशकों के पश्चात 2014 में मतदाताओं ने भाजपा को स्पष्ट पूर्ण बहुमत दिया था। 2019 के लोकसभा चुनावों में एक बार फिर देश की जनता ने भाजपा पर अपना विश्वास जताते हुए जनादेश दिया था। उन्हीं चुनाव परिणामों के कारण विश्वास से भरे नरेंद्र मोदी ने ‘ इस बार चार सौ पार ‘ का नारा बुलंद किया था । तीन चरणों तक पूरा का पूरा विपक्ष और मीडिया चार सौ पार के नारे की समीक्षा और रहस्य में उलझा रहा । अगर , विपक्षी दलों ने कौआ कान ले गया वाली तर्ज पर चार सौ पार के पीछे भागने की नासमझी ना की होती , तो चुनाव परिणाम कुछ और भी हो सकते थे । सत्ता पक्ष जहाँ केवल नरेंद्र मोदी के भरोसे चुनाव मैदान में था , वहीं विपक्षी गठबंधन चार सौ पार की समस्या समाधान में लगा रहा । विपक्षी दलों के साथ एक समस्या और बनी रही , कि हर पार्टी नेता स्वयं को दूसरे से ऊपर समझते हुए आपस में बात करने से कतराते रहे । वैसे , इस बार का लोकसभा चुनाव विपक्षी दलों की आपसी खींचतान और अभद्र विवादित बयानों के लिए याद रखा जाएगा । विवादित बयानबाजी में कोई राजनीतिक दल पीछे नहीं रहा । वो चाहे विपक्षी दल हो या सत्ताधारी । धार्मिक मुद्दे खूब उछाले गए । जातिगत वोटों के ध्रुवीकरण के लिए अगड़ा पिछड़ा भी किया गया । संविधान समाप्त किये जाने की अफवाहों का भी जोर रहा । लेकिन , इन सभी मुद्दों को बहुत पीछे छोड़ने में कामयाब रहा आरक्षण का मुद्दा । आरक्षण समाप्त कर दिए जाने की अफ़वाहें ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ इस कदर फैलाई गईं , कि उत्तरप्रदेश के चुनावी समीकरण पूरी तरह से बदल गए । सपा और कांग्रेस ने आरक्षण के मुद्दे को उत्तरप्रदेश में खूब हवा दी । इसके परिणामस्वरूप उन्हें राजनीतिक रूप से फायदा भी हुआ । जहाँ एक समय उत्तरप्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर भाजपा और उसके सहयोगियों के 75 से 80 सीटें तक जीतने की संभावनाएं जताई जा रही थी , वहीं सातवें चरण के मतदान तक सारे समीकरण बदले हुए दिखाई पड़ने लगे थे । चुनाव परिणामों ने बदले हुए चुनावी समीकरणों पर अपनी मोहर भी लगा दी । फलस्वरूप पिछले दो बार से अपने बलबूते पर स्पष्ट बहुमत पाने वाली भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्ट बहुमत से बहुत दूर रह गई । एनडीए ने जरूर 293 सीटें जीतने में सफलता प्राप्त की , किन्तु भाजपा को 240 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा । अनेक केंद्रीय मंत्रियों को पराजय का सामना करना पड़ा । लेकिन , इन सब के बावजूद विपक्षी दलों के गठबंधन को मन मसोसकर रहना पड़ा । मतदान के चौथे चरण के बाद से इंडी गठबंधन , विशेषकर कांग्रेस और सपा ने यह दावा करना प्रारम्भ कर दिया था , कि उन्हें सरकार बनाने के लिए स्पष्ट बहुमत मिल रहा है । यहाँ तक , कि एनडीए के चार सौ पार के नारे के प्रतिउत्तर में उन्होंने 295 सीट प्राप्त करने का दावा करने की शुरुआत भी कर दी थी । कांग्रेस और सपा के इस दावे का मजाक बनाया गया , लेकिन चार जून को आए चुनाव परिणामों ने यह बता दिया , कि उनके दावे हवा – हवाई नहीं थे । जिस कांग्रेस को सर्वे टीमें और राजनीतिक विश्लेषक 50 सीटों के अंदर सिमटता बता रहे थे , चुनाव परिणामों ने उन सब के मुंह बंद कर दिए । इस बार के लोकसभा चुनाव परिणामों ने न केवल कांग्रेस को जीवनदान दिया , बल्कि राहुल गांधी की नैतृत्व क्षमता पर हमेशा से उठते सवालिया प्रश्नों को भी काफी हद तक शांत कर दिया है । वहीं सपा नेता अखिलेश यादव के लिए भी यह लोकसभा चुनाव परिणाम किसी चमत्कार से कम नहीं रहे । 2017 से सिमटती जा रही सपा अपने राजनीतिक जीवन के चरम पर पहुंच गई । लोकसभा चुनावों में अप्रत्याशित रूप से सपा को अब तक की अधिकतम लोकसभा सीटें प्राप्त हुई हैं । हालांकि , सपा प्रमुख अखिलेश यादव के लिए यह दुविधा उत्पन्न हो गई है , कि वे दिल्ली जायें या लखनऊ में जमे रहें । यही यक्ष प्रश्न राहुल गांधी के समक्ष भी खड़ा है ।रायबरेली और वायनाड में से एक लोकसभा सीट चुनना होगा । जिस भी सीट को छोड़ेंगे , वहां के मतदाताओं को समझाने में कितने सफल होंगे ,यह बात वहाँ के उप चुनाव परिणाम ही तय करेंगे । सोनिया गांधी के राजस्थान से राज्यसभा में जाने के पश्चात गांधी परिवार का उत्तरप्रदेश में प्रतिनिधित्व समाप्त हो गया था । ऐसे में रायबरेली सीट पर विजयी होने के बाद राहुल गांधी का रायबरेली सीट छोड़ने का निर्णय राजनीतिक रूप से कांग्रेस के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है । खबरों के अनुसार राहुल गांधी से वायनाड सीट छोड़ने के लिए कहा जा रहा है । सुनने में यह भी आ रहा है ,कि प्रियंका गांधी वायनाड से कांग्रेस की प्रत्याशी हो सकती हैं । फिलहाल यह सब बातें भविष्य में तय होंगी , वर्तमान में यह बात पुख्ता हो चुकी है , कि नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं । इंडी गठबंधन में मतभेद पुनः उभरने लगे हैं । चुनाव परिणामों के घोषित होने के दो – तीन दिनों बाद ही आम आदमी पार्टी ने इंडी गठबंधन से यह कहते हुए किनारा कर लिया है , कि उसका गठबंधन के साथ नाता लोकसभा चुनावों तक ही था ।दिल्ली विधानसभा चुनावों में वो बिना गठबंधन के अकेले लड़ेगी । ऐसा ही कुछ हाल बंगाल में टीएमसी का भी है । महाराष्ट्र में अभी तक तो शांति है । विधानसभा चुनावों की घोषणा के पश्चात ही उबाल आएगा । रही बात उत्तरप्रदेश की , तो चूंकि कांग्रेस – सपा गठबंधन से दोनों ही दलों को फायदा पहुंचा है , इसलिए हो सकता है यह गठबंधन बना रहे । लेकिन , उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में अभी काफी वक्त है । तब तक राजनीतिक समीकरणों में क्या कुछ उठा पटक होगी , कहा नहीं जा सकता । क्योंकि , लड़कों के दिमाग का कोई भरोसा नहीं रहता । कब किस बात पर खटक जाए और किस बात पर बन जाये , युवा लड़कों को कोई समझ नहीं सकता । खासकर बात जब राजनीति की हो,तब । देश को नया प्रधानमंत्री और नई सरकार मिल चुकी है । एनडीए गठबंधन वैसे तो बहुत पुराना है । पुराने साथी भी हैं । लेकिन , बात – बात में रूठ जाने की और साथ छोड़ जाने की आदत भी जगजाहिर है । अभी तो एनडीए मजबूत लग रहा है । अब न छोड़ने की , पुराने साथी कसमें भी खा रहे हैं । लेकिन , राजनीति में सब कुछ जायज है , यह कहने वाले राजनीतिक दल कितने भरोसेमंद साबित होंगे यह कह पाना मुश्किल है । फिलहाल तो नई नवेली दुल्हन है । मुंह बंद है । सब कुछ अच्छा – अच्छा है । थोड़ा समय बीतने पर ही पता चल पाएगा , किस के मन में क्या छुपा है । कामना यही है , कि देशहित और जनहित में सरकार चलती रहे । देश की जनता को 1979 – 80 या 1990 – 91 या 1997 – 98 की भांति अस्थिरता वाला समय न देखना पड़े । इस देश ने उप चुनावों की त्रासदी को झेला है । लेकिन , अब और नहीं । यही उम्मीद है । यही आशा है ।
राकेश झा
सम्पादक : द वायरल