प्रत्येक बच्चे का अधिकार है कि उसकी क्षमता के विकास का पूरा मौका मिले। लेकिन लैंगिक असमानता की वजह से उनका विकास सर्वांगीण तरीके से नहीं हो पाता। भारतीय समाज में लड़कियों और लड़कों के बीच न केवल उनके घरों और समुदायों में बल्कि हर जगह लिंग असमानता दिखाई देती है। पाठ्यपुस्तकों, फिल्मों, मीडिया आदि सभी जगह उनके साथ लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है, फलस्वरूप असंतुलन की खाई निरंतर निर्मित हो रही है। ये असामनता घर में, समाज में, विद्यालय में, व्यवसाय में, स्पष्ट रूप से नज़र आती है। चारो तरफ महिलाओं को मजबूत बनाने की सरकारी योजनाएं चलाई जा रही है, जो तराजू लुढ़का था ऊपर की तरफ आने लगा है, पर इन सब प्रक्रियायों के दरम्यान हम कहीं लड़कों/पुरुषों पर पड़ने वाले प्रभाव तथा लड़कियों / महिलाओं की बदलती तस्वीर के साथ बदलते चरित्र को नज़रअंदाज़ तो नहीं कर रहे है।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ बेहतरीन नारा है, इसका संख्यात्मक सकारात्मक प्रभाव भी नज़ए आ रहा है हर क्षेत्र में लड़कियों की भूमिका दिखने लगी है, किन्तु इन सब के बीच अपराध कम नहीं हुआ है, सहयोग और सम्मान के भाव में बढ़ोतरी नहीं आयी है, एक कसक का जन्म हो रहा है। दिल्ली के प्रथमिक विद्यालयों का निरीक्षण और विद्यार्थियों से बात करने के बाद जो तस्वीर सामने आयी है वो चिंताजनक है। कक्षा के हर प्रतिस्पर्द्धा में लड़कियां बढ़ चढ़ कर भाग लेती हैं, एक से तीन के क्रम में भी इनकी संख्या प्रायः ज्यादा रहती है, जिससे इन्हे प्रोत्साहन मिलता है, और परिश्रम करने का हौसला भी हासिल होता है, किन्तु लड़के विद्यार्थियों के अंदर नकारात्मकता का जन्म होने लगता है। वे रोजमर्रे की शिकाय लड़कियों की घर में भी सुनी जाती है और विद्यालय में भी किन्तु लड़के घर में भी शिकायत नहीं कर पाते और स्कूल में भी। दोनों ही जगह लड़के होने का बोझ उठाना पड़ता है, कुछ शिक्षक एवं परिवार तो ये भी बोल देते हैं कि लड़कियों की तरह शिकायत ले कर न आएं। उन्हें तभी से अपनी समस्याओं को सुलझाना पड़ता है जिस कारण वे व्यवहारिक रूप से तभी से अकेले हो जाते हैं और भावनात्मक पक्ष दुर्बल होने लगता है। जो दोस्त हैं उनसे कुछ परिचर्चा कर लिए तो कर लिए पर वे मान के बड़े होने लगते कि उन्हें अपनी राहों का पत्थर खुद ही उठाना होगा।
जब वे किशोरावस्था से युवावस्था की ओर बढ़ते हैं तब भी ज़िन्दगी में आ रहे बदलाव, उभर रहे एहसास से आधे कच्चे – आधे पक्के सुनी सुनाई अनुभवों के आधार पर खुद ही जूझते हैं, अधिकांश लड़कों के पास यथोचित मार्ग दर्शन करने वाला नहीं होता है, जिस कारण कुछ दिग्भ्रमित हो जाते हैं तो कुछ कुंठा, क्षोभ, असंतोष से ग्रसित, जबकि बेटियों के साथ सदैव उनकी मां अपने अनुभव की पोटली के साथ होती है, जो सदा सही सलाह ही देती हैं। हमें अपने बच्चों या विद्यार्थियों के निर्माण में भेद-भाव के बिना प्रेम, भरोसा, संरक्षण देने की आवश्यकता है। जब दोनों का बचपन प्रेम, सुरक्षा, विश्वास से प्रतिवेश होगा तभी सहयोग और स्वीकार्यता का भाव परस्पर निर्मित होगा।
परवरिश का प्रभाव सिर्फ युवावस्था तक ही नहीं रहता वरन दूरगामी होता है। सिर्फ अर्थार्जन तक ही जीवन सीमित नहीं होता, भांति-भांति की चुनौतियों का सामना करने का हुनर भी इसमें छुपा रहता है। दिल्ली के ऐसे परिवार का भी निरीक्षण किया गया जिसमे विधवा और विधुर शामिल थे। चालीस से पचास उम्र के बीच की विधवा महिलाएं अपने संतान के प्रति कर्तव्यनिष्ठ दिखीं, हर चुनौतियों का सामना करते हुए भौतिक और भावनात्मक स्तर पर अपने बच्चे के निर्माण में जीवन का उद्देश्य ढूंढते और जूझते दिखीं, जब कि विधुर पुरुष अपनी भावनात्मक रिक्तता की वजह से हर स्तर पर ढाल खोजते नज़र आये। संतुलन के लिए सिर्फ कानून, आरक्षण, सुरक्षा ही आवश्यक नहीं है, आवश्यकता है अपने बच्चों को समझने की, उनमें सदाशयता लाने की, तभी वे जीवन की हर चुनौतियों का सामना कर पाएंगे, परस्पर सहयोगी बनेंगे ना कि प्रतिस्पर्द्धी।
अलग होने का आशय असंतुलन से हरगिज नहीं है। हर सजीव और निर्जीव की निजी चारित्रिक विशेषता है और वो समष्टि स्तर पर आवश्यक है, मसलन चाँद, सूर्य, ग्रह, तारे, हों या पहाड़, घाटी, नदी, मैदान, सबका अकार, चरित्र भिन्न है, हर फल, अन्न और सब्जी के पौध में अंतर है पर कोई श्रेष्ठ तो कोई काम श्रेष्ठ नहीं है। इस बात को हमें समझना होगा, संतुलन के चक्कर में सब समतल न हो जाए। महिला सशक्तिकरण के नाम पर जो माहौल आम जनता के बीच बन रहा है वो सिर्फ बाहरी स्वरुप पर ही नज़र आ रहा है, आंतरिक स्तर पर महिलाएं सशक्त नहीं हो पा रही हैं। आज भी इनके प्रति अपराध के आंकड़े हों, सम्मान देने की, नदारद है। जहाँ महिलाएं कभी दोयम दर्जे पे नहीं रही, अर्द्धनारीश्वर जिस समाज का आधार रहा है वहां महिलाएं ठगी सी महसूस कर रही हैं तो दोषी व्यवस्था है ना कि कोई व्यक्ति। अगर हम एक को उपेक्षित कर के दूसरे को पनपाएंगे तो नतीजा जीवन और समाज के पक्ष में हरगिज नहीं होगा। बेटा हो या बेटी दोनों को प्रेम, सुरक्षा, भरोसा की आवश्यकता है।
डॉ पूर्णिमा कुमारी , नई दिल्ली