राकेश झा,संपादक
विधानसभा चुनावों की घोषणा होने के साथ ही क्षेत्र में राजनीतिक सरगर्मियां बढ़ गईं हैं । मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार होने के कारण भाजपा के लिए यह विधानसभा चुनाव जीतना प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ है । क्योंकि , 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा के बीच विजयी सीटों का अंतर बहुत कम था । साथ ही लगभग दर्जन भर से अधिक सीटें ऐसी रहीं हैं , जिन पर हार जीत में मतों का अंतर मामूली सा था । रूठे हुए , बागी विधायकों को जैसे तैसे कांग्रेस ने सरकार बनाते हुए भाजपा को सत्ता से बेदखल कर तो दिया था , लेकिन आपसी कलह और गुटबाजी का भाजपा ने भरपूर फायदा उठाया । लगभग डेढ़ वर्ष पश्चात भाजपा को सिंधिया गुट को तोड़ने में सफलता मिली । कोरोना काल में एक बार पुनः भाजपा ने सत्ता पा ली । राजनीतिक बयानबाजी चलती रही । खूब कोर्ट कचहरी के चक्कर भी लगे , लेकिन ‘ मामा जी ‘ की मुख्यमंत्री की कुर्सी सुरक्षित बनी रही । ऐसा देश के अनेक राज्यों में पूर्व में भी होता आया है । लेकिन , इस बार जनता के समझ में सम्भवतः यह आ गया होगा , कि सरकार के नाम पर केवल राजनीतिक दलों का नाम भर बदलता है , कुछ चेहरे हर जगह दिख जाते हैं । राजनीतिक भाषा में इसे दल बदल कहा जाता है । वर्षों तक एक दूसरे के विरुद्ध भांति भांति के आरोप लगाने वाले लोग , अगले ही क्षण एक दूसरे को देव स्वरूप बताने लगे जाते हैं । वहीं दूसरी ओर पार्टी के कार्यकर्ता ठगे हुए से नेताओं का मुंह देखते रह जाते हैं । टिकिट काटे जाने से परेशान नेता हृदय परिवर्तन का दावा करते हुए , दूसरा घर तलाशने लग जाता है । मुश्किल यह है , कि पार्टी का टिकट हर किसी को चाहिए होता है । दशकों से विधायक बने हुए विधायक को भी और नए उभरते युवा को भी । वर्तमान विधायक कभी भी अपने द्वारा कराए गए कार्यों की चर्चा नहीं करता है , और ना ही यह चाहता है , कि कोई उस बारे में उससे सवाल जवाब करे । लेकिन , टिकिट तो मिलना ही चाहिए । इस विषय पर सभी राजनीतिक दलों के प्रमुखों को चिंतन करना चाहिए । चुनाव जीतने के बाद लापता होने की जो परम्परा सी जो बन गई है , उससे निजात पाने की दिशा में कोई सार्थक कदम उठाने चाहिए । हालांकि , कुछ राजनीतिक दलों ने प्रत्याशी चयन के लिए अपनी जिला ईकाई के पदाधिकारियों की राय लेने की शुरुआत की थी , किंतु दुर्भाग्यवश लोकतंत्र में सब कुछ बिकाऊ साबित हो रहा है । स्थानीय जनता के मत से विपरीत रिपोर्ट बनती है । हैरानी तो तब होती है , जब राजनीतिक दलों के बड़े बड़े नेता अपने राजनीतिक दौरों के दौरान क्षेत्र के विकास या पिछड़ेपन को नहीं देखते । किसी भी क्षेत्र के विकास का सबसे बड़ा आईना होता है , वहाँ का रोजगार और सड़कें । परन्तु , गरीब जनता के जनप्रतिनिधि तो उड़नखटोले से आते हैं । जमीन कहाँ से दिखेगी । चुनाव जीतने के लिए पांच वर्षों में एक बार जमीनी कार्यकर्ता की जरूरत महसूस होती है । चुनावों में विजयी होने के पश्चात कोई नहीं पहचानता । मध्यप्रदेश , छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस – भाजपा के सिवाय किसी तीसरे राजनीतिक दल की गुंजाइश कभी नहीं बन सकी । यही वजह है , कि कांग्रेस ने इंडी अलाइंस के सहयोगियों के साथ इन राज्यों में किसी भी गठबंधन की संभावना से इंकार करते हुए , यह कह दिया कि यह गठबंधन केवल लोकसभा चुनावों के लिए है । आम आदमी पार्टी ने पहले ही अपना चुनाव प्रचार का शुभारंभ इन राज्यों में कर दिया था । समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने कांग्रेस को धोखेबाज बता दिया है । उन्होंने कहा दिग्विजय सिंह और कमलनाथ हमारे नेताओं को एक बजे रात तक बैठाए रहे । पिछले चुनावी आंकड़ों के आधार पर छः सीटें देने का विश्वास दिलाया था । परंतु , जब कांग्रेस ने मध्यप्रदेश में अपने उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की , तो सपा को एक भी सीट नहीं दी । अखिलेश यहीं पर नहीं रुके , आगे उन्होंने कांग्रेस को अपने चिरकुट नेताओं की बयानबाजी पर रोक लगाने की सलाह भी दे डाली । अभी तक कांग्रेस के लिए आप पार्टी ही सिरदर्द बनी हुई थी । अब एक नई मुसीबत समाजवादी पार्टी आ गई है । इन सब घटनाक्रम को देखते हुए , सहजता से यह अनुमान लगाया जा सकता है , कि मध्यप्रदेश चुनावों में जो कांग्रेस , भाजपा से आगे दिखाई दे रही थी , उसकी गति में अवरोध पैदा होने लगे हैं । कमलनाथ और दिग्विजयसिंह के बीच कपड़े फाड़ने वाला बयान भी बहुत तेजी के साथ वायरल हुआ है । भले ही दोनों नेताओं ने आपसी मजाक बताते हुए बात सम्भालने का भरपूर प्रयास किया । लेकिन , कांग्रेस को जो राजनीतिक नुकसान होना था , वह तो हो ही चुका है । जिस समय दिग्विजयसिंह मुख्यमंत्री थे ,उस समय भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस में जमकर गुटबाजी हुआ करती थी । दिग्विजय गट , कमलनाथ गुट , सुरेश पचौरी गुट और सिंधिया गुट । मध्यप्रदेश की जनता ने वह दौर भी खूब देखा हुआ है । इसलिए आज भले ही कमलनाथ और दिग्विजयसिंह यह कहें कि आपसी मजाक के सम्बंध हैं , लेकिन प्रदेश की जनता सब समझ रही है । वहीं दूसरी ओर मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के प्रति जनता की नाराजगी भी छुपी हुई नहीं है । अतिथि शिक्षक , अतिथि विद्वान , पटवारी , आशा कार्यकर्ता , आंगनबाड़ी कार्यकर्ता , पुरानी पेंशन वाले बहुत लंबी फेहरिस्त है , ये सब प्रदेश सरकार से मुंह फुलाये बैठे हैं । इन सब नाराज लोगों को साधने की शिवराजसिंह ने अपनी तरफ से भरसक प्रयास किया है । सफलता कितने हद तक मिली है , यह तो चुनाव परिणामों से ही स्पष्ट हो पायेगा । हांलाकि , भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने मध्यप्रदेश में इस परेशानी को पहले ही भांप लिया था । इसलिए काफी पहले ही भाजपा ने सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों का नाम मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए घोषित कर दिया था । इस निर्णय में मध्यप्रदेश की जनता के लिए एक मैसेज भी छुपा था , अगला मुख्यमंत्री कोई भी हो सकता है । साथ ही साथ जिन सांसदों को प्रदेश की राजनीति में रुचि थी , उन्हें प्रदेश स्तर पर अपना राजनीतिक कद नापने का अवसर प्रदान समय कर दिया है ।