देहदान अभियान’ की शुरुआत आसान नहीं थी…घरवाले गुस्सा गए। लोगों यकीन करने को तैयार नहीं थे। धर्म गुरुओं ने इसे गलत तक ठहरा दिया। लेकिन काम से डायवर्ट न होकर मनोज लगे रहे। आज उनकी संस्था को पूरे यूपी में जाना जाता है…
20 जनवरी 2003…आजाद हिंद फौज की लेफ्टिनेंट मानवती आर्या अपने पति केसी आर्या का पार्थिव शरीर लेकर अस्पताल पहुंच गईं। कार की पीछे की सीट पर पति का शव था। ये तस्वीर देखकर पूरे अस्पताल में हड़कंप मच गया। उनका कहना था कि वह अपने पति का देहदान करना चाहती हैं। ‘देहदान’ यानी शव को दान में दे देना। अस्पताल प्रशासन ने पहली बार यह शब्द सुना था। लेफ्टिनेंट मानवती की बात सुनकर सब हैरान रह गए। वहीं, पर खड़े मनोज को इस घटना ने अंदर तक हिला दिया। मानवती की बातों से मनोज इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने कानपुर में ‘देहदान अभियान’ शुरू कर दिया। नवंबर, 2003 में युग दधिचि देहदान संस्थान शुरू किया। एक ही परिवार के 7 लोगों से शुरू हुआ ये अभियान आज 3500 लोगों तक पहुंच चुका है। मनोज ने इस दरम्यान, 6 महीने के बच्चे से लेकर 107 साल की बुजुर्ग महिला का देहदान कराया। सिलसिला आज भी जारी है…
मर चुके इंसान की भी कीमत होती है, पहली बार पता चला : मनोज बताते हैं कि मानवती आर्या की चर्चा पूरे कानपुर में थी। मैं उस समय मेडिकल स्टोर चलाता था। मैं देखता था कि मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्रों के पास रिसर्च के लिए डेडबॉडी की कमी होती है। इस घटना के बाद पता चला कि मरने के बाद भी इंसानी शरीर कितने काम का होता है। अगर मृत शरीर मेडिकल की पढ़ाई कर रहे छात्रों को मिल जाए तो लोगों को अच्छा इलाज मिलने लगेगा।
मैं घर आया और पत्नी माधवी को बातचीत की। मैंने अपनी देहदान करने का फैसला लिया। इसके साथ और लोगों का देहदान कराने का सोचा। घर में बैठकर संस्थान बनाने के लिए लोगो तैयार कर रहा था, तभी पत्नी ने कहा समय की बर्बादी है। मरने के बाद अपने परिवार का मृत शरीर कौन देगा?
मेरा देहदान का फॉर्म देख पापा भड़क गए : देहदान के लिए एक फॉर्म भरना होता है। जिसमें परिवार के दो सदस्यों की साइन लगती है। अपना फॉर्म लेकर पिता के पास के गया, तो वह बहुत तेज बिगड़ गए। उन्होंने कहा मैं क्यों करूंगा तुम्हारे देहदान के फॉर्म पर साइन। पहले तुम मेरे फॉर्म पर साइन करो। पिता जी भी देहदान के लिए तैयार हो गए। इसके बाद परिवार के 7 लोग तैयार हो गए। मनोज कहते हैं, “मैं देहदान अभियान के संकल्प पत्र को लेकर तत्काल राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री के पास पहुंचा। उन्होंने मेरा समर्थन किया। 15 नवंबर, 2003 को राज्यपाल की मौजूदगी में गायत्री यज्ञ के साथ युग दधिचि देहदान संस्थान की शुरुआत हुई। इस महायज्ञ के दौरान काम में बाधा न आए इसलिए सेंगर पति-पत्नी ने अपनी जिंदगी निसंतान रहने का संकल्प लिया।
धर्मगुरु मेरी कोशिश पर गुस्से से भर गए : देहदान के संकल्प की बात दोस्तों व रिश्तेदारों को पता चली तो अन्य लोग जुड़ गए। 24 लोगों ने देहदान करने की शपथ ली। ये बात समाज के धर्मगुरुओं को पता चली तो उन्होंने विरोध शुरू कर दिया। उन्होंने कहा कि हिंदू धर्म में मौत के बाद शरीर को अग्नि देनी चाहिए, वरना आत्मा भटकती रहती है। मामला काफी बढ़ गया। धर्मगुरु इसके विरोध पर आ गए। काफी समझाने के बाद भी नहीं माने तो सितंबर, 2005 में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस रखी गई। जिसमें उनके द्वारा किए गए सवालों का जवाब दिया। इसके बाद विरोध के स्वर थोड़ा कम पड़ने लगे।
पहला देहदान 21 साल के लड़के का हुआ : कानपुर का रहने वाला बउआ दीक्षित मसकूलर डिस्ट्रॉफी से पीड़ित हुआ। 20 अगस्त, 2006 को बउआ का देहांत हो गया। डॉक्टर बताते हैं इस बीमारी के मरीजों की आयु 30 साल तक की होती है। बउआ की मौत 21 साल की उम्र में हो गई। मेडिकल के लिहाज से ये बॉडी काफी महत्वपूर्ण थी। यहां से शुरू हुआ अभियान आज 259 देहदान पर पहुंच चुका है।
कोरोना काल में नहीं हो पाया 60 लोगों का देहदान : कानपुर में एक प्रतिष्ठित अखबार के पत्रकार सुबोध मिश्रा के 6 महीने के बेटे कृष्णम मिश्रा का निधन हो गया। बच्चे के बाबा रामाशीष मिश्रा का देहदान का कॉल आया। 6 महीने का लड़का होने के चलते हिम्मत नहीं हुई तो मना कर दिया। फिर बच्चे के पिता सुबोध ने कॉल करके कहा कि मेडिकल फील्ड को ऐसी बॉडी की ज्यादा जरूरत होती है। जो बहुत मुश्किल से मिलती है। हम सहमति से बच्चे का देहदान करना चाहते हैं। हालांकि, बच्चे के दादा ने भी देहदान का संकल्प पत्र भरा था लेकिन कोरोना काल में मौत के चलते उनका देहदान नहीं हुआ। कोरोना काल में संकल्प लिए करीब 60 लोगों का देहदान नहीं हुआ।
देहदान कराने वालों का आंकड़ा देख डॉक्टर चौंक गए : डॉक्टरों की एक मेडिकल की कॉन्फ्रेंस थी। जिसमें मेरे एक परिचित डॉक्टर ने मुझे बुलाया। कॉन्फ्रेंस में परिचय देकर मुझे स्टेज पर बुलाया गया। जहां पर बातचीत के दौरान मैंने बोल दिया कि 5000 का लक्ष्य है। वहां मौजूद डॉक्टरों ने अजीब सा रिएक्ट किया और कहा 100 करवाना भी मुश्किल है। तब मैं थोड़ा टूट गया। मुझे लगा कि शायद ज्यादा बोल गया। लेकिन साल भर के अंदर मेरे पास 500 संकल्प पत्र आ गए।
आजाद हिंद फौज की पहली महिला कैप्टन का कराया देहदान : लक्ष्मी सहगल आजाद हिंद फौज में कैप्टन थीं। सिंगापुर में बनी अस्थाई आजाद हिंद सरकार की कैबिनेट में पहली महिला थीं। बर्मा को आजाद कराने में जापानी सेना के साथ काम करने दौरान ब्रिटिश सेना ने कैप्टन लक्ष्मी सहगल को गिरफ्तार कर लिया। 1946 तक वह बर्मा की जेल में रही। डॉ. लक्ष्मी ने लाहौर में मार्च, 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह कर लिया और फिर कानपुर आकर रहने लगीं। 1971 में मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। 24 जुलाई, 2012 निधन के बाद युग दधिचि संस्थान ने उनका देहदान कराया।
जिनसे देहदान का विचार मिला, उनका भी देहदान कराया : मनोज बताते हैं कि 2003 में आजाद हिंद फौज की लेफ्टिनेंट मानवती आर्या ने अपने पति का देहदान किया था। उनसे प्रेरणा लेकर मैंने संस्थान बनाया। इसके बाद मानवती जी को बताया तो उन्होंने भी हमारे संस्थान में देहदान की शपथ ली। 20 दिसंबर, 2019 मानवती जी का 99 साल में निधन हो गया। इसके बाद उनका भी देहदान हुआ।
किन्नर भी ले रहे देहदान में हिस्सा : किन्नर की प्रदेश अध्यक्ष काजल किरण कानपुर में रहती हैं। युग दधिचि देहदान संस्थान के संकल्प कार्यक्रम में वो भी देहदान की शपथ ले चुकी हैं। अभी तक अलग-अलग हिस्सों से 7 किन्नरों के देहदान हो चुके हैं।
सभी धर्मों के लोग ले रहे संकल्प : मनोज बताते हैं कि जैन, ईसाई, सिख, मुस्लिम सभी धर्म के लोग अब कॉल करते हैं। सबसे ज्यादा सक्रिय सिख है। लेकिन इधर 22 मुस्लिम समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों ने फॉर्म भरा है। फॉर्म में दो परिवार के लोगों का नंबर देना होता है। उनसे बात करने के बाद ही फॉर्म को पूरा माना जाता है।
पूरे रिति-रिवाज से भेजते हैं शव : 24 घंटे में कभी भी देहदान की सूचना मिलने पर सबसे पहले नेत्रदान करवाते हैं। इसके बाद एंबुलेंस से पार्थिव शरीर और खुद प्राइवेट गाड़ी से निर्धारित मेडिकल कॉलेज ससम्मान ले जाया जाता है। जहां पर एक विशेष संस्कार सम्पन्न किया जाता है। देह समर्पण संस्कार-मृत देह की परिजनों द्वारा जलता हुआ दीपक हाथ में लेकर सात परिक्रमा की जाती है। गायत्री महामंत्र एवं महामृत्युंजय मंत्र का पाठ किया जाता है। सामूहिक प्रार्थना होती है। पुष्पांजलि करते हुए गंगाजल का डालकर शांति पाठ मंत्र पढ़ने के बाद शरीर को एनाटॉमी विभाग को दिया जाता है। हर साल देहदानियों के लिए सामूहिक तर्पण एवं पिंडदान संस्था करती है।
किन शवों का होता है देहदान : एचआईवी और हेपेटाइटिस वाले मृत शरीर नहीं लिए जाते हैं। कैंसर पीड़ित शरीर का स्थिति के हिसाब से देहदान हो सकता है। एक्सीडेंट की बॉडी को नहीं लिया जाता है। नेचुरल डेथ को ही प्राथमिकता रहती है। कोरोना की बॉडी तो परिवार को ही नहीं दी जाती है।
बॉडी सुरक्षित रखने का अच्छा इंतजाम नहीं : जागरूकता बढ़ने के बाद से लोग बड़े स्तर पर देहदान करने को तैयार हैं। लेकिन दान में मिले शरीर को सुरक्षित रखने का इंतजाम नहीं है। मनोज सेंगर ने शव को सुरक्षित रखने का बेहतर इंतजाम करने के लिए सीएम योगी आदित्यनाथ से मिलने के लिए खत लिखा है।