: पंडित राधाकृष्ण शुक्ला , लखनऊ
यह सत्यकथा मेरे जन्म से भी लगभग तीस वर्ष पहले की है। मेरे गांव के भुवन शुक्ला मात्र आठवीं पास थे। अंग्रेजों का जमाना था। शिक्षित तो थे ही इसलिए भुवन जी को लाटसाहब की विशेष कृपा प्राप्त हुई और दो गांवों की लम्बरदारी मिल गयी। काम था, कैसे भी करके किसानो से मालगुजारी इकट्ठी करना और तहसील के मालखाने में जमा करवाना। इलाके में जिस किसी को लंबरदारी मिल गयी मानो वही उस इलाके का मालिक हो गया।
भुवन जी भी अपने पहनावे से अपने पद की ठसक बरकरार रखे थे। तीन चार मुस्टंडे हर वक़्त मरने मारने पे आमादा रहते थे। उनका काम ही था रात दिन छानो घोटो और लम्बरदार की खुसियाबरदारी में लगे रहो। मालगुजारी में नगद कहाँ मिलता था। गरीब किसानों की पैदावार ही उठवा लेते और फिर उसे बेच कर सरकार का पैसा मालखाने में और बचा हुआ अपने तहखाने के सुपुर्द हो जाता।
भुवन जी का मान सम्मान सब डर के कारण दिखावा ही था। गरीब किसान मन मसोस के रह जाते और अंदर ही अंदर लम्बरदार के मोक्ष की दुआ ही देते रहते। अचानक एक दिन उनका घोड़ा कुछ ऐसे बिदका की भुवन उससे उतर न पाये और सीधे घोड़े के नीचे आ गए। चारों तरफ हाहाकार मच गया। और गंभीर रूप से घायल भुवन जी के प्राण पखेरू उड़ गए। उनके क्रियाकर्म और मृत्युभोज तक गांव शोकमग्न दिखा। वो बात और थी की भोज में लोगों ने खूब छक के पूरी और कदुआ की सब्जी खाया।
भुवन के पुत्र सोहन नौवीं फेल होकर पिता जी का हाथ बटाते थे। सरकार से लंबरदारी सोहन जी को मिल गयी। लेकिन सोहन बड़े सहृदय व्यक्ति थे। सबसे मिलजुल कर रहते। सबके सुख दुःख में सम्मिलित होते। सरकारी मालगुजारी बढाने के लिए दो तालाब भी बनवाया। जिसका पानी खेतों की सिंचाई में काम आता था। गांव वाले उनका नाम आदर से लेते थे। सरकारी आय भी बढ़ गयी थी तो लाटसाहब की कृपा भी बढ़ी और सोहन भैया लम्बरदार से पट्टीदार और आखिर में जिलेदार बना दिए गए। यह तो बहुत बड़ी पदवी थी।
मालमत्ता भी काफी आ गया। घुड़साल भी तैयार हुई। कहते है अच्छी नस्ल के पंद्रह घोड़े पले थे। जिले के बड़े बड़े अफसर भी उनकी सवारी करते। लोगबाग प्रशंसा करते हुए न थकते। कहते भुवन घर जैसा सपूत पैदा हुआ भगवान करे सब के घर पैदा हो।
वक़्त को किसने देखा है। सोहन भी बीमारी के चलते स्वर्ग सिधार गए। उनके पुत्र जयकिशोर बाप दादा की जायदाद के सहारे ही पढ़े बढे। पंद्रह बीस साल तक तो खूब अच्छी कटी। धीरे धीरे खेत बिकने लगे। घोड़े भी कम होने लगे। कुछ तो बिक गए। कुछ बीमारी में मर गए। लेकिन जयकिशोर की शान और शौकत में रत्ती भर की कमी नहीं आई। आखिरी बचा घोडा भी दो सेर जलेबी का नाश्ता रोज करता।
करते धरते सब कुछ मिट गया। उनके पुत्र झंडू महराज भी नम्बर एक के आलसी। बीस एक साल में ही सबकुछ मिट गया और परिवार भूखो मरने लगा। जयकिशोर तो अपनी हेठी के चलते कुछ करते नहीं थे लेकिन उनकी पत्नी दूसरों के घरों का कामकाज करके एक जून की रोटी का जुगाड़ कर ही लेती।
जहाँ तक मुझे अपने बचपन की याद है एक एक करके चार मौतें भुखमरी की वजह से हुई थी। जयकिशोर ने अपनी करतूतों से सोहन भैया की साख और इज्जत सब कुछ मिटटी में मिलाकर खुद भी सपरिवार मिटटी में मिल गए। जिलेदार के परिवार की अब तो सिर्फ कहानियां ही प्रचलित हैं। कभी कभार इसी घटना के चलते गांव वाले बोल ही देते हैं कि……
पूता भये सपुता सब जग सूता।
पूता भये कपूता चूल्हे कूकुर मूता।।