: पं. राधा कृष्ण शुक्ला , लखनऊ
पठारी क्षेत्र। काफी ढलान पर यत्र तत्र बिखरी बस्तियां। खपरैलों से ढकी और बेतरतीब बसी हुई बस्ती भी आबाद हुआ करती हैं। हरियाली के नाम पर मात्र कांटेदार झाड़ियां। ऐसी ही एक बस्ती के ऊपर कुपित हुए सूर्यदेव अपना गर्म गर्म कोप बरसा रहे थे। लगभग 15 दिन हो चुके थे मौसम चौबीसों घंटे गर्म और एक जैसा ही रहता।
गांव के लगभग सभी जलस्रोत या तो सूख चुके थे या फिर मार्तंड देव के कोप से झुलसी धरा ने उस जल को स्वयं ही पी कर अपनी प्यास बुझा लिया था। जगह जगह पर पृथ्वी धड़क गयी थी। भूख को तो छोड़ो आये दिन प्यास से पीड़ित पशु पक्षी दम तोड़ रहे थे।
गांव का एकमात्र कुआं अभी तक किसी तरह गांववासियों की सीमित आवश्यकताओं हेतु जलापूर्ति कर ही रहा था किंतु वह भी अब सूख कर धरती माता के शरीर पर एक सूखे गहरे घाव का आभास दे रहा था। पानी की जरूरत पूरी करने हेतु लोगबाग चार मील चलकर सोन नदी का पानी लाते।
इसी कठिन समय मे लहुरी के घर एक कन्या पोती का जन्म हुआ। बहू सुरतिया तो अब सौर बैठ गयी थी। पानी का पूर्ण प्रबन्ध अब बुजुर्ग लहुरी और पत्नी कंठी के कंधों पर आ पड़ा था। बेचारे डगमगाते कदमो से दोनों नदी तक दिन में सिर्फ एक बार ही जा पाते और बमुश्किल चार घड़े पानी ही ला पाते। कहते हैं कि जब समय खराब होता है तो भूजी मछली भी पानी में कूद जाती है।
ऐसे कठिन समय में तेज धूप लगने के कारण लहुरी को जबर्दस्त बुखार आ गया और उसने खाट पकड़ ली। सौर बैठी सुरतिया तो घर बाहर निकल नहीं सकती थी सो पानी लाने का भार बूढ़ी कंठी पर आन पड़ा। वह बूढ़ी बेचारी किसी तरह से दो घड़े और एक छोटे लोटे भर पानी ही ला पाती।
ऐसे बद से बदतर होते हालात बहुरिया सुरती से देखे नहीं गए। सौर के सात बाद ही सुरती अपनी छोटी बच्ची को दुधपिलाकर कमर कसी और सास कंठी के साथ पानी लाने निकल पड़ी। बेटी को अपने ससुर के हाथ सौंप कर सिर्फ यही कहा कि वह मात्र बिटिया को थोड़ी थोड़ी देर में भीगे कपडे से उसके ओंठ नम करता रहे। उसका पति मजदूरी करने शहर पहले ही जा चुका था।
सास बहुरिया ने मिलकर आज पांच घड़े पानी लाने की सोचा और तेज कदमों से नदी की ओर चल दिया। दो घण्टे लगातार चलने के बाद दोनों नदी तट पर पहुंची। घड़े भरे और नहाधोकर थोड़ी देर आराम करने की गरज से सुस्ताने लगीं। धूप भी सिर पर चढ़ आयी थी। सूरज देवता आज ऐसे चमक रहे थे जैसे पसीने के साथ खून को भी भाप बना कर उड़ा लेंगे। खैर! तपते सूरज की परवाह किये बगैर दो बड़े घड़े सुरतिया ने अपने सिर पर एक के ऊपर एक रखा और दोनों छोटे घड़े सास कंठी के सिर पर रखवाकर मंजिल की ओर चल दिया। पाचवें घड़े को सुरतिया ने अपनी कमर के सहारे टिका कर घर की तरफ शक्ति भर तेज कदमों से चल पड़ी।
इधर कमजोर बीमार लहुरी किसी तरह सात दिन की रोती बिलखती दुधमुंही बच्ची को हिलाडुला दुलराकर चुप करवाते रहे। बीच बीच में खुद भी हांफ कर निढाल हो जाते किन्तु पुनः उस असहाय बच्ची का ध्यान आते ही उसको सीने से चिपका कर चुप करवाने लगते। रुई जैसे कपड़े से उसके ओठों को बचे खुचे पानी से तर करते रहते।
खुद भी भीषण गर्मी के कारण प्यास से बेहाल हो गए थे। मात्र एक छोटी कटोरी पानी ही बच पाया था। दिन अब पूरी तरह आसमान पर चढ़ चुका था। कांपते हाथों से कटोरी के गर्म हो चुके पानी को लहुरी ने जैसे उठाया वैसे ही जाने कैसे कटोरी हाथ से छूटी और सारा पानी जमीन पर बिखर गया। प्यासी पृथ्वी ने पलक झपकते ही उस कटोरी भर पानी को सोख लिया।
बच्ची शायद प्यासे सूखे ओठों के कारण ही बहुत ज्यादा बिलख रही थी। घर में एक बूंद पानी नहीं था। नदी से गांव की ओर आने वाले रास्ते पर नजर दौड़ाने पर कंठी और सुरतिया को तो छोड़ो गांव की कोई महिला दूर दूर तक नजर नहीं आ रही थी। बच्ची जी जान छोड़कर रो रही थी। एक तो चार घण्टे से भूखी ऊपर से प्यासी भी जो थी। उसकी प्यास बुझाने के लिए लहुरी ने अपनी पूरी शक्ति समेटी और लकुठिया के सहारे एक गिलास पानी मांगने पड़ोस की ओर चल दिये।
दो, तीन, चार सभी घरों में नदी के पानी का इंतजार हो रहा था। किसी तरह एक घर में एक छोटी गिलसिया भर पानी मिल ही गया। उसको लेकर लहुरी जल्दी से घर आये। घर आकर देखा तो बच्ची शांति से सो रही थी थी। लहुरी भी आश्वस्त हो आधे गिलास पानी से अपना गला तर किया और खाट पर निढाल हो कर पड़ गए।
दस मिनट बाद ही सुरतिया और कंठी पांच घड़े पानी लेकर आ गईं। घड़े एक किनारे रखकर सुरतिया अपनी नवजात बच्ची को गोद में उठाकर दुलराने लगी। जब बच्ची ने कोई हरकत नहीं किया तो आशंका से उसका कालेज कांप उठा। बच्ची भूखी प्यासी ही उस जल संकट से छुटकारा पा चुकी थी। रोती बिलखती सुरतिया और कंठी उन पांचों निष्प्रयोज्य हत्यारे पानी से भरे घड़ों की ओर निहारते हुए करुण विलाप कर रहे थे। उन गरीबों के पास इसके अलावा कोई और चारा भी तो नहीं था।
धनवालों जरा सोचो। धरती माता के शरीर में एक एक इंच की ट्यूब डाल डाल कर और पंप लगा लगा कर उनका जलरूपी रक्त बेरहमी से क्यों दोहन कर रहे। उस जल से सड़को का कूड़ा मत बहाओ। कार धोना कुछ दिनों के लिए टाल दो। सिर्फ कम से कम जल के उपयोग से पोंछ लो। वरना सुरतिया की बच्ची जैसा हश्र आपकी भविष्य की संतति का भी होगा। वह दिन अब ज्यादा दूर नहीं है।