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Monday, February 10, 2025
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सुनहरे सपनों की चाह में दम तोड़ते युवा

: डॉ. पूर्णिमा कुमारी

आधुनक दौर में जिंदगी के मायने तेजी से बदलते जा रहे हैं। कोई जिंदगी में शोहरत पाना चाहता है, कोई दौलत कमाना चाहता है तो किसी को रुतबा भाता है। कमोबेश यहां हर कोई एक सपने को पूर्ण करने के लिए ही जीता है। सभी अभिभावक अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं ताकि उनकी जिंदगी भी शोहरत से सज जाए। व्यक्ति अपने बच्चे को शीर्ष पर देखने की उम्मीद रखता है। ये मांग सिर्फ अभिभावकों के तरफ से ही नहीं रहता अमुक प्रतियोगियों के अंदर भी पैठ जमा लेता है, यही वजह युवा को प्रतियोगिता के संजाल में उलझा देता है। यदि युवा सफल हुए तो सर पर ताज किन्तु असफलता ले कर आती है अँधेरे से भरी कोठरी।
बेहतर परिणाम के लालसे में बच्चे कोचिंग संस्थानों से जुड़ने लगते हैं। परिजन श्रेष्ठ कोचिंग संस्थान का चयन कर बच्चे का नामंकन करवा के निश्चिंत हो जाते हैं। कोचिंग शुद्ध रूप से व्यवसाय का केंद्र बन गया है। प्राप्तांक के उठते-गिरते ग्राफ का प्रतिभागियों पर असर क्या हो रहा है इस पर चिंतन करने का वक्त न संस्थानों के पास है और न ही अभिभावक के पास, जिस कारण समय-समय पर भयावह परिणाम सामने आते रहते हैं। राजस्थान का कोटा कभी औद्योगिक नगरी के रूप में जाना जाता था, जब कि बीते कुछ दशकों से आईआईटी और मेडिकल में प्रवेश दिलाने की कोचिंग के लिए कोटा शहर की पहचान कोचिंग हब के रूप बन गयी है। यहाँ आने वाले छात्र-छात्राओं की तादाद लगभग दो से ढाई लाख तक है।
देश में कोचिंग का व्यवसाय लगभग 20 हजार करोड़ रुपये से अधिक का माना जाता है, यद्यपि केवल कोटा में कोचिंग का कारोबार एक हजार करोड़ रुपये से अधिक का है। इससे स्पष्ट है कि कोचिंग पूरी तरह से व्यवसाय का रूप ले चुकी है। ऐसे में मानवीय संबंध या गुरु-शिष्य के संबंध के बारे में सोचना अर्थहीन है, अपनत्व या आपसी संवेदना की कल्पना बेकार है। कोचिंग संस्थान पांच से छह घंटों तक कोचिंग कराते हैं। बच्चों का शेष समय हॉस्टल में अध्ययन में बीतता है। पहले से ही बेहतर परिणाम हेतु मानसिक दबाव में रह रहे बच्चे कोचिंग संस्थानों की नियमित परीक्षाओं के माध्यम से रैंकिंग के दबाव में इस कदर रहते हैं कि असफलता के दबाव को सहन ही नहीं कर पाते। ऐसे मानसिक दबाव की स्थिति में हॉस्टल या पेंइग गेस्ट में रहने वाले बच्चों को न सेहतमंद खाने की व्यवथा होती है और न ही निजी दुख-दर्द को बांटने वाला ही कोई होता है। अतः इन कमजोर पलों में वे मृत्यु को अपना लेते हैं ।
कोटा शहर के हर चौक-चौराहे पर छात्रों की सफलता के बड़े-बड़े होर्डिंग्स बताते हैं कि कोटा में कोचिंग ही सब कुछ है। कोटा इसलिए भी चर्चा का केंद्र बना हुआ है क्योंकि यहाँ के सफलता का स्ट्राइक तीस फीसदी से ऊपर रहता है और देश के इंजीनियरिंग और मेडिकल के प्रतियोगी परीक्षाओं में टॉप टेन में से कम से पांच छात्र कोटा के ही रहते हैं। लेकिन कोटा का एक और सच भी है जो बेहद भयावह है। एक बड़ी संख्या उन छात्रों की भी है जो असफल हो जाते हैं और उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो अपनी असफलता बर्दाश्त नहीं कर पाते। विद्यार्थियों के बीच तनाव गंभीर समस्या के रूप में उभर कर सामने आया है। सारी तारीफ, गुणगान अगली कतार के विद्यार्थी ही ले जाते हैं जिस वजह से ये होड़ विकृत स्वरुप ले रखा है।
आये दिन आत्महत्या की घटनाओं से केन्द्र व राज्य सरकार दोनों ही चिंतित हैं। सरकार और मनोविज्ञानियों ने परस्पर सहयोग से अपने स्तर पर प्रयास भी शुरू कर दिए हैं, ये दीगर बात है कि फिलहाल ये कारगर नहीं हो पा रहा है। कोटा के कोचिंग हब में 04 जून को एक और होनहार छात्रा आयुषी ने जीवनलीला समाप्त कर ली। इस साल जनवरी से अब तक यह छठीं आत्महत्या है। पिछले दिनों कोटा में कोचिंग कर रही छात्रा कृति की आत्म हत्या और उसके पूर्व सरकार माता-पिता को लिखा गया संदेश आंख खोलने के लिए काफी है। इस प्रकार के सन्देश को सुन कर मन विचलित हो जाता है। हम अपने बच्चों को प्रतिस्पर्द्धा की होड़ में किधर धकेल रहे हैं।
नीति निर्माताओं की ओर से बार-बार चरित्र निर्माण, व्यक्तित्व विकास और मानसिक स्वास्थ्य को विद्यालय-स्तर पर शामिल करने की बात कही जाती रही है। दरअसल, बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति के पुनरावलोकन की आवश्यकता महसूस होने लगी है। बच्चों में ज्ञान भरा जा रहा है, बिना उनके मानसिक स्वास्थ्य को परखे। समय-समय पर राज्यसभा एवं लोकसभा में भी कोचिंग संस्थानों के छात्रों / छात्राओं पर बढ़ते दबाव तथा आत्महत्या के आंकड़ों पे चिंता व्यक्त करते हुए समस्या की गहराई व निदान पर परिचर्चाएं होते रही है। आत्महत्या ने सभी देश-काल, समाज, जाति-धर्म इत्यादि को प्रभावित किया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल दुनियाभर में करीब आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं।
बाल्यकाल मनुष्य के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल होता है। इस काल में ही बच्चे स्वरुप लेते हैं, प्राथमिकता निर्धारित करने सीखते हैं। अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षाओं का रोपण प्राथमिक कक्षा से ही करना शुरू कर देते हैं, फलतः बच्चे पूरे जीवन ‘उससे’ अधिक सफल होने की होड़ में रहते हैं, जो न उनके सेहत के लिए अच्छा होता है और ना ही समाज के लिए। अभिभावकों को धैर्य रखने और अपने बच्चों में आत्मविश्वास जगाने की आवश्यकता है। माता-पिता ही उनके जीवन के मजबूत आधार और स्तम्भ हैं साथ ही उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के निर्माता एवं संरक्षक भी। एक सहयोगी, दोस्त के रूप में उनसे संवाद करें, उन्हें समझने का यत्न करें, उनकी ताकत बनें और उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न करने का प्रयास करें, क्योंकि ये ही आपके बच्चे के श्रेष्ठ जीवन का कारण बनेगा। बच्चे ही राष्ट्र के धरोहर, बेहतर समाज के निर्माता तथा जीवन की ऊर्जा हैं, इनका समुचित पालन-पोषण, मार्गदर्शन ही सुरक्षित भविष्य का निर्माण करेगा।
प्रतियोगी परीक्षाओं के टॉपर ही व्यवसायिक रूप से सफल होते हैं ऐसा नहीं है। ऐसे उदाहरण से अतीत और वर्तमान भरा पड़ा है, नाना लोगों ने डिग्री के बिना स्वयं को साबित किया है, टॉपर होना तो दूर की बात है। सफलता और अच्छे कॉलेज में दाखिला दो अलग विषय है।अभिभावकों/ परिजनों को नज़रिया बदलने की आवश्यकता है।
मीडिया आत्महत्या के आंकड़े को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। खबरों में आत्महत्या की प्रक्रिया और विधि का विस्तृत वर्णन ना किया जाए, यथा- आत्महत्या करने का तरीका, आत्महत्या से मरने वाले व्यक्ति का फोटो, सुसाइड नोट, टेक्स्ट मैसेज, सोशल मीडिया पोस्ट, ईमेल, वीडियो फुटेज आदि को प्रकाशित ना किया जाये। विशेषज्ञों के अनुसार इसका नकारात्मक असर खबर पढ़ने एवं सुनने वालों, परिवार, समाज और अवसादग्रस्त व्यक्ति पर पड़ता है तथा प्रभावित व्यक्ति द्वारा आत्महत्या करने के तरीकों की नक़ल, आत्महत्या के प्रयास व पुनरावृति करने की सम्भावना सदा बनी रहती है। आत्महत्या सम्बंधित ख़बरों को अखबार के मुख्य पृष्ठ पर प्रकाशित नहीं किया जाये और ना ही ख़बरों की पुनरावृति की जाये। रेडियो या टीवी माध्यम में आत्महत्या की खबर को ब्रेकिंग न्यूज़ में प्रमुखता ना देते हुए उसे दूसरे या तीसरें स्थान पर प्रसारित करने का प्रयास किया जाये। आत्महत्या के रिपोर्टिंग करते समय आत्महत्या करने के स्थान/साइट के बारें में विवरण प्रदान नहीं करना चाहिए, यदि विवरण आवश्यक हो तो ऐसी भाषा का उपयोग करें जिससे की कोई भी स्थान या शहर के चरित्र पर नकारात्मक पराभव न पड़े। खबरों की प्रस्तुति में विशेष ध्यान रखना चाहिए कि खबर पढ़/सुन/देख कर अवसाद ग्रस्त युवा आत्महत्या के लिए प्रेरित न हो जाये। मीडिया के यथोचित उपयोग से देश में आत्महत्याएं करने वाले व्यक्तियों की संख्या में कमी लायी जा सकती है साथ ही आत्महत्या जैसे संवेदनशील विषय पर आम जनता को जागरूक करने का प्रयास भी किया जा सकता है।

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