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Friday, March 21, 2025
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Homeव्यंग - पुस्तक समीक्षाबाई पुराण - तीसरा अध्याय' त्यौहारी

बाई पुराण – तीसरा अध्याय’ त्यौहारी

: पण्डित राधाकृष्ण शुक्ला,लखनऊ

त्यौहारों पर उपहार देना आत्मीयता का द्योतक माना जाता रहा है। लगभग हर त्यौहार पर घर के बड़े, अपनों से छोटों को, कुछ न कुछ नगद या खाने के सामान के रूप में देते आये है। सरकारी कार्यालयों में भी उपहार देने का चलन देखने में आया आया है। ईद में दी जाने वाली ईदी तो बहुत ही पुण्य का कार्य समझा जाता है। इस उपहार के चलते तमाम गरीब गुरबा भी त्यौहार मना लेते हैं। यही चलन घरों में काम करने वाली बाईयों पर भी लागू हुआ।

इसी चलन की चाल के चलते रमा जी ने भी अपनी घरेलू बाई को दीवाली में कुछ उपहार देने की सोची। वैसे रमा जी ने कभी भी घरेलू बाई नहीं रखी थी। खुद ही अपने सारे घरेलू काम निपटाती रहीं। किन्तु जब से एक उच्च रिहायश वाली कॉलोनी में आईं तब से बाई रखना नाक का सवाल मान कर उन्होंने भी एक भद्र सी दिखने वाली साफसुथरी महिला को काम पर रख लिया।

मुन्नी नाम की वह बाई भी कम शौकीन नहीं थी। उसके खुद के हाथों को साधरण पाउडर से कोई नुकसान न पहुंचे,इसलिए आते ही उसने एक उम्दा किस्म के पाउडर और मुलायम वाले मंजने की फरमाइश कर दी। मन मसोस कर रमा जी ने वह इंतजाम कर दिया।

रमा जी को एक बात मुन्नी की बहुत बुरी लगती कि जब वह बाथरूम में रखे हुए उनके मोती साबुन से अपने हाथ धोकर बाहर जाती। खैर!! इज्जत का सवाल मान कर रमा जी उसकी यह हरकत भी बर्दाश्त करती रहीं। रमा जी अपनी सहेलियों के बीच इन सारी बातों को खूब चटकारे लेकर शान से बताती और खुश होतीं।

इस तरह काम करते हुए मुन्नी की पहली दिवाली रमा जी के घर पर पड़ी। मुन्नी बाई ने बड़े ही बेलाग तरीके से मालकिन रमा को बोल दिया कि वह इस दीवाली में एक अच्छी सी नई साड़ी ही लेगी। मुन्नी की ऐसी मांग सुनकर रमा जी के होश उड़ गए। जो सोचा था उसका उल्टा हो रहा था।

ऐसा सभी के साथ होता है कि तीज, त्यौहार, शादी ब्याह में लोगबाग कपड़े गिफ्ट में देते ही रहते हैं। जिनमें से कुछ कपड़े ऐसे होते हैं जो कभी भी टेलर का मुंह नहीं देख पाते। वह कपड़े मात्र एक घर से दूसरे घर की यात्रा ही करते रहते हैं। रमा जी ने भी ऐसे ही कपड़ों में आई एक साड़ी मुन्नी बाई को देने की सोच रखी थी।

ऐसा सोचकर रमा जी ने करीने से पैक की हुई वह साड़ी, कुछ खील, शक्कर के खिलौने और प्रसाद के रुप में मुहल्ले से आई खुद को नापसंद मिठाई का एक पैकेट बनाकर मुन्नी बाई को थमा दिया।

मुन्नी भी बड़ी चकड थी। बाकी सब किनारे रखते हुए उसने साड़ी वाला पैकेट खोल डाला। बाहर निकली उस सलमे सितारों से आच्छादित गाढ़े लाल रंग की साड़ी देख शौकीन मिजाज मुन्नी ने जो सत्तर कोने का मुंह बनाया तो उसको देख रमा जी के होश ही उड़ गए।

रमा जी कुछ स्पष्टीकरण दे पाती उसके पहले ही मुन्नी ने तपाक से बोला कि ऐसी साड़ी तो वह पहनने से रही। आप इसे रख लो और अपनी जिठानी की बिटिया के पहनावे में दे देना। साड़ी देना है तो चोपड़ा दीदी जैसी शिफॉन वाली दीजिये। ऐसा कहकर मुन्नी बाई उठ खड़ी हुई और पैर झटकती हुई चलती बनी।

रमा को तो जैसे सांप ही सूंघ गया था। चित्रवत थोड़ी देर खड़ी रहने के बाद कुछ सम्भलीं किन्तु बाई काम छोड़ सकती है ऐसा सोचकर उनके रोंगटे खड़े हो गए। दिन भर परेशान और तनावग्रस्त रही। शाम को रमा जी जब अपनी सहेलियों के जमघट में पार्क में बैठी तो कुछ बोल नहीं पा रही थीं। जैसे उनसे कोई अक्षम्य अपराध हुआ हो।

तभी उनकी एक सहेली ने चुटकी लेते हुए कहा कि अरे रमा! तुम्हारी मुन्नी बाई तुम्हारी दी हुई साड़ी की जबरदस्त मलामत करती हुई इधर उधर बोल रही है। क्या हो गया?
रमा जी ने इस बात को धैर्य से अनसुना किया और बिना कुछ दर्शाए थोड़ी ही देर बाद अपने घर को रवाना हो गईं।

अगले दिन पार्क में सहेलियों के जमघट में रमा जी नदारत थीं। उधर से ही गुजरती हुई मुन्नी बाई से किसी ने रमा के बारे में पूछा तो मुन्नी बाई ने सिर्फ यही कहा कि उन्होंने उसे काम से हटा दिया है।

रमा जी ने दिखावे को तिलांजलि देकर खुद को अत्यंत ही सुखी कर लिया था। कुछ दिनों बाद उन्हें एक सीधी सादी मददगार बाई मिल ही गयी थी।

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