व्यंग्य
: गिरीश पंकज
अकसर लोग किसी बुरे आदमी को बुरा आदमी ही समझते हैं । लेकिन कुछ बुरे लोगों में बड़ी अच्छाई भी होती है कि वे अपने आप को ही अपनी तरफ से अच्छा होने का प्रमाण पत्र देते रहते हैं। ईश्वर उनको ऐसी महान दृष्टि देता है कि उनकी अपनी सारी बुराइयां उन्हें अच्छाइयाँ ही प्रतीत होती हैं। मैं एक बुरे आदमी को जानता हूँ। उनका नाम है लतखोरीलाल वल्द कनछेदी लाल। डट कर रिश्वतखोरी करते हैं पर हमेशा ऋषिवत हो कर बड़े ही निर्विकार भाव से उंसको ग्रहण कर लेते हैं। इस कृत्य को अपनी अच्छाई बताते हैं। विनम्रतापूर्वक फरमाते है कि “मैं कभी रिश्वत नहीं लेता। यह तो ईश्वर है, जो मुझे यह अवसर देते रहता है। सच बात यह है कि रिश्वत मुझसे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती। इसीलिए मैंने रिश्वत की रकम को कभी भी हाथ बिल्कुल नहीं लगाया। उसे हिकारत की नजरों से देखता हूं । देने वाले से कहता हूँ कि उधर दराज खोल कर उस में रख दो। फिर भले ही बाद में उस आई लक्ष्मी को ईश्वर का परम् प्रसाद मानकर बाकायदा प्रणाम कर के उठाता हूँ । लक्ष्मीजी का अपमान मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता। लोग भले ही मेरी निंदा करते रहें कि नंबर एक का रिश्वतखोर हूँ, लेकिन मेरी आत्मा जानती है कि मैं रिश्वत के पैसे का एक बड़ा हिस्सा परमार्थ में लगा देता हूँ। दान कर देता हूँ। कुछ रकम उदारता के साथ अपने सगे साले को, तो कुछ रकम अतिरिक्त उदारता के साथ प्यारी साली को भेंट कर देता हूँ।”
उस दिन जब लतखोरीलालजी से मैं एक बार फिर टकरा गया, तो कन्नी काटकर निकलने की कोशिश करने लगा। क्योंकि गोस्वामी तुलसीदास जी की पंक्तियाँ याद आ गई, ”दुष्ट संग झन देहु विधाता”। लेकिन लतखोरीलाल ने लपक कर मेरी बांह पकड़ ली और बोले, ”बच के कहाँ जाओगे। आइए, बैठकर ग़म गलत कर लें।” उनका आशय था मदिरापान से था।
मैंने कहा, ” एक तो मुझे कोई ग़म नहीं है, दूसरी बात आपको तो पता है कि “मैं दुग्धपान वाला व्यक्ति हूं”। मेरी बात सुन कर वे मुस्कुराने लगे, फिर बोले, “यहीं तो मार खा गया इंडिया। दारू पीने वाली उम्र में आप अब तक दूध पी रहे हैं। आप के बारे में जानता हूँ, लेकिन आप मेरे साथ बैठ जाएंगे तो मुझे आनंद आ जाएगा। अकेले पीने में कोई मज़ा नहीं। और यह भी तो सोचिए कि क्या अद्भुत नजारा होगा ; मैं मदिरापान का रहा हूँ, और आप दुग्धपान कर रहे हैं। आप मेरी इस अच्छाई को देखें कि मैं रत्ती भर बुरा नहीं मानता कि मैं दारू पी रहा हूँ और आप दूध का सेवन कर रहे हैं।”
मैंने हँसते हुए कहा, ”बुरा तो मुझे मानना चाहिए कि दूध पीने वाले के सामने आप दारू पी रहे हैं । लेकिन मैं भी बुरा नहीं मानूँगा क्योंकि बुरा मानने से भी कुछ होना-जाना नहीं है। आपने तो कसम खा ली है कि हम नहीं सुधरेंगे।”
सज्जन के चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभरी। उन्होंने कहा,”यही तो मुझ में अच्छाई है कि जो हूँ, वह व्यक्त कर देता हूं। दूसरे लोग अपनी बुराई को वह बताते नहीं, लेकिन मैं अपनी बुराई को खुल कर बता देता हूँ । यही मेरी अच्छाई है। इस मामले में मैं कुछ तथाकथित बड़े साहित्यकारों जैसा हूँ,जो अपने जीवन की सारी नंगाई अपनी कहानियों में उड़ेल देते हैं। वैसेवआप कह सकते हैं कि इस मामले में मैं पूरी तरह से गांधीवादी हूँ।”
मैंने चौंकते हुए पूछा, “अरे! यहाँ गांधीवाद कैसे आ गया ?” तो सज्जन बोले, ”आपने उनकी आत्मकथा नहीं पढ़ी क्या, जिसमें गांधीजी ने अपनी तमाम बुराइयों के बारे में बेबाकी के साथ लिखा है? मैंने कुछ लिखा तो नहीं लेकिन बेबाकी के साथ बोल देता हूँ।”
मैंने कहा, ” गांधीजी ने बहुत सारे अच्छे काम भी किए, उसकी संख्या अनगिनत है । आपने रिश्वतखोरी के अलावा भी कुछ अच्छे काम किए हैं क्या ?”
सज्जन सिर खुजाकर सोचते हुए बोले, “अच्छे काम तो याद नहीं लेकिन आप कह सकते हैं कि मैं पचास फीसदी गांधीवादी हूँ। कुछ अच्छे काम करता, तो सौ फीसदी गांधीवादी कहलाता मगर कोई बात नहीं। पचास प्रतिशत गांधीवादी तो कहलाने का हक मुझे है।”
उनकी बात सुनकर मुझे बहुत हँसी आई और मैंने कहा, ”मान गए आपकी कलाकारी को ! अपनी बुराई को भी आप महिमामंडित करने की कोशिश में लगे हुए हैं ! धन्य हैं मुन्ना भाई, आप।”
लतखोरीलाल मुस्कुराते हुए बोले, “आपने मेरा नया नाम रख दिया मुन्नाभाई! बड़ा अच्छा है। मैं सोचता हूँ, अब तो यही नाम रख लूँ। मेरे पिताजी ने मेरा नाम लतखोरीलाल रख दिया।
मैंने कहा, ” लेकिन अमूमन ऐसे नाम रखे तो नहीं जाते। इसके पीछे कोई गूढ़ कारण रहा होगा? “
लतखोरी लाल ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा, ”कारण यह था कि पिता को कोई संतान नहीं हो रही थी। तब किसी ज्ञानी पंडित दतनिपोरजी ने कहा कि ‘आपको अपनी पत्नी की दस लात खानी है । उसके बाद श्योरशॉट है कि आपको पुत्र-रत्न की प्राप्ति होगी।’ बस क्या था, पिता ने अपनी पत्नी यानी मेरी माताश्री की दस लात खाई और नौवें महीने बाद हम प्रकट हो गए । तो पिताजी ने अति उत्साह के साथ मेरा नाम (लात खाने वाले का लाल यानी ) लतखोरी लाल ही रख दिया। बचपन में लोग मुझे लत्तू भी कहते थे, तो वह नाम चल जाता था लेकिन जब बड़ा हुआ, तो लोग लतखोरी लाल..लतखोरीलाल कहने लगे तो बुरा लगने लगा। इसलिए अब अपना पूरा नाम नहीं लिखता। सबको बताता हूँ, ‘माई सेल्फ एलके लाल’। लोग समझ नहीं पाते कि मैं लतखोरी लाल हूँ । अब लोग मुझे मिस्टर लाल कहते हैं और मैं ख़ुशहाल हो जाता हूँ। आप जैसे कुछ पुराने लोग असली नाम जानते हैं, तो उनके लिए लतखोरी लाल हूँ, लेकिन बाकी लोगों के लिए तो एलके लाल हूँ। वैसे आप भी मुझे मिस्टर लाल कहें।”
लतखोरी उर्फ मिस्टर लाल की ऐसी अनेक हरकतें हैं, जिनके कारण वे समय-समय पर लतियाए जाते हैं। लेकिन उनका दिल है कि मानता नहीं। कभी राह चलती किसी स्त्री को देखकर कुछ कमेंट कर देंगे, कभी किसी महापुरुष का नाम ले लीजिए, तो उसको भी दो कौड़ी का बता देंगे। उनका जुमला ही है, ” अरे वह दो कौड़ी का है”। एक बार हमने लगातार चार-पाँच महापुरुषों के नाम लिए, तो उनका नाम सुनते ही वे फौरन बोल पड़ते, “अरे वह तो दो कौड़ी का है”। फिर मैंने कहा, ”एलके लाल के बारे में आपका क्या कहना है ?” तो वे फौरन से पेश्तर बोल उठे, ”वह भी दो कौड़ी का है!”
मैंने कहा, “आप अपने को भी दो कौड़ी का बोल रहे हैं, यह बहुत बड़ी बात है।”
वे चौंकते हुए बोले, ” अच्छा )-अच्छा ! मेरे बारे में बोल रहे हैं ? आपको तो पता ही है कि मैं अच्छाई की खान हूँ इसीलिए महान हूँ। कोई माने-न-माने, मैं तो अपने आप को सबसे अलग मानता हूँ।” और फिर उसके बाद बहुत देर तक अपनी तारीफ करते रहे । जब उन्हें सहसा आत्मज्ञान हुआ कि बहुत देर से अपनी तारीफ किए जा रहा हूँ, कुछ देर के लिए रुके, फिर कहने लगे, “जब कोई हमारी प्रशंसा न करें तो आत्मप्रशंसा करने में क्या बुराई है ।”
इतना बोल कर वे बत्तीसी उर्फ पच्चीसी (सात दाँत झड़ चुके हैं ) दिखाकर हँसने लगे तो मैंने कहा, ”अच्छा मिस्टर लाल, चलता हूँ।”