राकेश झा , सम्पादक
सम्भवतः विश्व में ऐसा कोई भी देश नहीं है,जिसमें उसकी धर्म संस्कृति के अनुरूप धार्मिक जुलूस न निकलता हो।भारत भी उससे अछूता नहीं है।बल्कि अनेक धर्मों और संस्कृतियों को अपने में समाहित करने वाले भारतवर्ष में साल में अनेक तरह के धार्मिक जुलूसों का आयोजन होता आया है।किंतु,यह भी अकल्पनीय सत्य है,कि देश को गुलामी से मुक्त होने के पूर्व से ही हिंदुओं के धार्मिक जुलूसों पर मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा पत्थरबाजी और नानाप्रकार के आक्रमण किये जाते रहे हैं।इसके बावजूद हमेशा गंगा-जमुनी तहजीब और हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई जैसे नारे फिरकापरस्त नेताओं और राजनीतिक दलों द्वारा दिये जाते रहे हैं,बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा,कि आज भी यही भ्रम फैलाया जा रहा है।भारतीय कानून का यह मानना है,कि अपराधी का साथ देने वाला भी अपराधी होता है,फिर क्या कारण है,कि हर दंगाई और आतंकवादी पर जैसे ही कोई कानूनी कार्यवाही होती है,तो पलक झपकते हजारों की संख्या में उनके हिमायती खड़े हो जाते हैं।राजनीतिक दलों से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक और फिल्मी कलाकारों से लेकर न्यायालय तक इन लोगों के बचाव में प्रदर्शन और बयानबाजी होने लगती है।जिस न्यायालय की सीढ़ी चढ़ने में एक आम आदमी को हफ्तों लग जाते हैं,वहीं अपराधों में लिप्त इन लोगों के लिए अदालतें विशेष रूप से समय निकालकर सुनवाई कर लेती हैं।….और,यह सब एक-दो बार नहीं हर बार होता है।एक तरफ यह कहा जाता है,कि अपराधियों का धर्म नहीं होता।आतंकवादियों का धर्म नहीं होता।दंगाइयों का धर्म नहीं होता।लेकिन,जैसे ही कार्यवाहियां प्रारम्भ होती हैं,इनका धर्म सामने आ जाता है।सत्ता से बाहर बैठा,सत्ता पाने के लिए लपलपाती जीभ के साथ हर राजनीतिक दल आरोपियों के ऊपर की जा रही कानूनी कार्यवाही को अल्पसंख्यक समुदाय पर अत्याचार बताने लग जाता है।अगर,अपराधों को भी धर्म के चश्मे से देखने का चलन देश के राजनीतिक दलों ने अपना लिया है!!तो,अब हर अपराध में अपराधियों का नाम,धर्म और जाति बताई जानी चाहिए!!ताकि,लोगों को चश्मे से साफ़-साफ़ दिखाई पड़े,कि हक़ीकत क्या है!!अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण देने का राजनीतिक खेल कोई नया नहीं है,लेकिन इसके दुष्परिणाम आज भी उतने ही घातक हैं,जितने पहले हुआ करते थे।राजनीतिक स्वार्थों की लड़ाई में देश को किस दिशा में ढकेला जा रहा है,इस बारे में कोई भी चिंतन नहीं।क्योंकि,वर्तमान में राजनीतिक दलों और उनके नेताओं की स्वहित ही सर्वोपरि की नीति उजागर हो चुकी है।दुःखद यह है,कि इनकी हर घातक नीति का शिकार इनके समर्थक और आम नागरिक बनते हैं।नेता पहले भी लाशों पर राजनीति कर मलाई खा रहे थे,आज भी वही स्थिति बनी हुई है।
दंगाइयों के पक्षधर यह बात कभी नहीं बता पाते हैं,कि हमेशा हिंदुओं के धार्मिक जुलूसों पर ही आक्रमण क्यों होता है।पत्थरबाजी हर बार मस्जिदों से या मुस्लिम समुदाय के घरों से ही क्यों होती है।क्या कारण है,कि यह हमले मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में ही होते हैं।जैसा कि अनेक विपक्षी दल यह आरोप लगा रहे हैं,कि उन क्षेत्रों से हिन्दू धार्मिक जुलूस किसलिए निकालते हैं।यदि मापदंड है,तब सवाल तो यह भी बनता है,कि मुहर्रम के जुलूस हिन्दू बाहुल्य क्षेत्रों से किसलिए निकाले जाते हैं।आज तक कभी यह सुनने में क्यों नहीं आया,कि ताज़िया के जुलूस पर मंदिरों या हिंदुओं के घरों से आक्रमण किया गया।कुल मिलाकर तथ्यात्मक बात यह है,कि सत्ता लोलुपता में डूबे नेताओं और राजनीतिक दलों को वोट बैंक की राजनीति करनी है।उनको इस बात से कोई सरोकार नहीं,कि उनके इस कदम से कितने घर जलते हैं,या कितनी लाशें गिरती हैं।उनका एकमात्र मक़सद है,सत्ता पाना।इसकी वजह से उन्हें दंगाइयों के साथ खड़े होना पड़े या आतंकवादियों के,उन्हें हत्यारे के साथ खड़े होना पड़े या फिर बलात्कारी के।उन्हें शर्म महसूस नहीं होगी।उनकी अंतरात्मा नहीं कचोटेगी।क्योंकि,वे तो राजनीति में अपनी अंतरात्मा को मार ही आये हुए हैं।उनको दर्द केवल तब होता है,जब पार्टी उनका टिकिट काट दे या उनका कोई करीबी मारा जाए।आम जनता तो उनके लिये कीड़े-मकोड़े से बढ़कर कुछ नहीं।इसलिए दंगे होते रहेंगे।दंगाइयों के पक्ष में घड़ियाली आंसू बहाए जाते रहेंगे।न्यायालय विशेष रूप से वक्त निकाल कर यथास्थिति के आदेश देते रहेंगे।क्योंकि, देश के संविधान ने यह घोषणा कर रखी है,कि देश के हर नागरिक के लिए एक कानून है।पता,नहीं वह नागरिक किस देश में रह रहा है।जिसके लिये यह कहा गया है।कुल मिलाकर सही बात यह है,कि सत्ता,कानून और दलाल सब कुछ इन्हीं के लिए है।आंखों में बंधी काली पट्टी वास्तव में जर्जर हो चुकी है।सब जगह दलालों और अपराधियों का बोलबाला है।आम नागरिक की कहीं कोई सुनवाई नहीं।आप कितने ही नारे लिखवा लो।आपसी भाईचारे के गाने गा लो।सबका साथ-सबका विकास चिल्लाते रहो,लेकिन इस देश की विडम्बना यही है,कि संविधान और कानून दोनों ही बीते जमाने की बात हो गए हैं।या यूं कह लें कि, दिल बहलाने को ख़याल अच्छा है,ग़ालिब।इनमें सुधार की महती आवश्यकता है।नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कहा था,कि इस देश को आज़ादी दिलवाने के लिए जिस तरह की नीति बनाई गई है,वो लोगों को अराजकता की ओर प्रेरित कर रही है।जनता ने अराजकता को ही स्वतंत्रता संग्राम मान लिया है।इनमें अनुशासन नहीं है,और जिस देश के नागरिकों में अनुशासन नहीं होगा,वो देश तरक्की नहीं कर पाएगा।इसलिए यह आवश्यक है,कि जब देश आजाद हो,तब हर नागरिक के लिए दस वर्षों तक सेना में नौकरी करना आवश्यक किया जाना चाहिए,ताकि हर नागरिक देश के प्रति अपने दायित्वों को समझ सके।दुर्भाग्यवश नेताजी सुभाष चंद्र बोस देश के आज़ाद होने से पहले ही शहीद हो गए।उनका कथन आज कितना सत्य साबित हो रहा है,यह पूरा देश देख रहा है।अराजक लोगों की भरमार है।उनके समर्थन में खड़े लोगों की संख्या भी असीमित है।तकलीफ़ केवल उनको है,जो संविधान में अपनी आस्था रखते हुए,कानून का पालन करते हैं।