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Wednesday, March 19, 2025
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यह कैसी स्वतंत्राता है ?

अधिकारों का बोध और दायित्वों में अबोध

चलिए साहब,आजादी की उम्र एक वर्ष और बढ़ गई! ‘द वायरल‘ की आप सभी सुधीजनों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक मंगलकामनायें.आज आजादी चैहत्तर वर्षीय बुजुर्ग हो गई.आशय यह कि,हमारे जिन पूर्वजों की मेहनत,त्याग और बलिदान से हमारा देश गुलामी की जंजीरों से मुक्त हुआ था,उनकी तीसरी-चैथी पीढ़ी आज स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ रही है.क्या,पढ़ रही है? यह मत पूछिए.क्योंकि,आज भी हमारी युवा पीढ़ी के अधिकतर युवा देश के गौरवशाली इतिहास और परम्पराओं से अनजान हैं.हमसे कहीं तो चूक हुई है,कि हमने अपने देश की संस्कृति,परम्पराओं और इतिहास को दरकिनार कर आधुनिकता की दौड़ में शामिल हो गए.अच्छाई और कमियाँ सब में होती हैं.वह व्यक्ति हो या परम्परा.हमने अपनी गलत सामाजिक परम्पराओं में बदलाव किए,लेकिन दुर्भाग्यवश अपनी अच्छी परम्पराओं की अनदेखी भी की.यही वजह है,कि हम आज तक देश के नागरिकों को आजादी के दायित्व नहीं समझा पाए.लोगों को राष्ट्रध्वज,राष्ट्रीय गीत और राष्ट्रगान का महत्व नहीं समझा सके.इस नाकामी का जिम्मेदार किसे ठहराया जाए?देश में जन्मा और यहीं की नागरिकता से पहचाने जाने वाला नागरिक,यदि केवल अपने अधिकारों की बात करता है,तो इसका सीधा सा आशय यह है,कि उसे अपने दायित्वों के प्रति न तो कोई बोध है,ना ही वहइस बारे जानना चाहता है.ऐसा क्योंकर हुआ? कहीं न कहीं हमारी सरकारों और जनप्रतिनिधियों की वैचारिक सोच की कमी रही.कहते हैं ‘गीली मिट्टी‘ को मनचाहा आकर दिया जा सकता है.उसे नक्काशीदार खूबसूरत बनाया जा सकता है,लेकिन सूखने और पकने के पश्चात किसी भी तरह की न तो नक्काशी की जा सकती है,और ना ही उसे कोई दूसरा आकर दिया जा सकता है.प्राथमिक स्कूलों में पढ़ रहे बच्चे ‘गीली‘ मिट्टी सदृश्य होते हैं.देश की संस्कृति,परम्पराओं और गौरवशाली इतिहास के साथ-साथ समाज एवं देश के प्रति नागरिकों के दायित्वों की जानकारी दिए जाने की आवश्यकता है.यही बच्चे बड़े होकर देश के जिम्मेदार नागरिक बनेंगे हैं.उनके आचार विचार में यह सब झलकेगा.वर्तमान समय में मिशनरी और प्रायवेट स्कूलों में बच्चों को पढ़ाने का दौर है.सरकारी स्कूलों की तुलना में कई गुना अधिक फीस और अन्य खर्चों के बावजूद लोग,अपने बच्चों को इन स्कूलों में पढ़वाना पसंद करते हैं,तो कोई कारण तो होगा?सरकारी स्कूलों में सभी सुविधाओं के बावजूद सरकारी स्कूलों के शिक्षक स्वंय के बच्चों को मिशनरियों और प्रायवेट स्कूलों में पढ़ने भेजते हैं,तो इसका कारण क्या हो सकता है? स्वतंत्रता के चैहत्तर वर्षों बाद,पचास वर्षीय व्यक्ति को निरक्षर देखकर आश्चर्य नहीं होता,किंतु जब तीस-पैंतीस वर्षीय व्यक्ति की निरक्षरता सामने आती है,तब आश्चर्य से अधिक दुःख होता है । कि हमारे जनप्रतिनिधि,हमारी सरकारें नागरिकों को साक्षर बनाने के लिए क्या करती रही हैं?साक्षरता अभियान में अरबों रुपये खर्च करने के पश्चात हमें अपेक्षित परिणाम हासिल क्यों नहीं हो पाए? इस असफलता के लिए जिम्मेदारियां तय क्यों नहीं की गईं?आये दिन अपनी माँगों को लेकर कोई न कोई विभाग या सँगठन हड़ताल और धरना प्रदर्शन करता रहता है.अधिकारों की चाहत सभी के दिलों में है,किंतु क्या ये लोग अपने दायित्वों के प्रति भी उतने ही जागरूक हैं,जितना अपने अधिकारों के प्रति?देश को आजाद हुए,भले ही चैहत्तर वर्ष हो गए हों,किंतु आज भी बहुत से बदलाव बाकी हैं.जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है ‘आम नागरिक की सोच में बदलाव‘ हम-आपको केवल अपने अधिकारों के लिए नहीं,बल्कि अपने दायित्वों के प्रति भी जागरूक होना होगा.यही हमारे-आपके अपने समाज और देश के प्रति जिम्मेदारी भी है,और दायित्व भी.

राकेश झा
सम्पादक

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