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होली का आध्यात्मिक और वैज्ञानिक महत्व

हिंदू धर्म में जितने भी पर्व उत्सव मनाया जाते हैं उसके पीछे अध्ययन ही जुड़ा है जिसका की वैज्ञानिकों ने वैज्ञानिक पहलू खोज और प्रचार और प्रसार किया सर्वप्रथम देखें तो ऋतु परिवर्तन होता है शीत ऋतु के बाद में ग्रीष्म ऋतु का प्रारंभ होता है बसंत ऋतु भी अपने पूर्ण रूप में रहती है चारों ओर टेसू और अनेक तरह के फूलों का वातावरण में समावेश हो जाता है हमारे मनीषी जानते थे की ग्रीष्म ऋतु में हमारे शरीर को ऊर्जा प्रदान करने वाले रंग उड़ जाते हैं इसलिए उन्होंने टेसू के फूल को प्रमुख प्राथमिकता देकर इसके रंग से ही होली खेलने का चलन रखा कंडो और जो भस्म शेष रहती थी उसकी ,होली केसर का तिलक, हल्दी का तिलक ,अष्टगंध का तिलक ,इस सब का प्रचलन बहुत था। कालांतर में यह सब खत्म हो गया ,और इसका रूप ले लिया अनेक तरह के रासायनिक रंगों ने जिस की त्वचा के अनेक रोग उत्पन्न हुए पानी का प्रदूषण फैला समझ के अभाव में चारों तरफ गंदगी फैली लिए विचार करें हमारे शरीर में पाए जाने वाले सात चक्र में से सबसे पहले जो चक्र है उसे क्रॉउन चक्र कहते हैं जिसका रंग बेगानी होता है और यह हमें मिलता है चुकंदर से आज्ञा चक्र जो है मजेंटा कलर होता है जो हमें गुलाब की पंखुड़ियां से प्राप्त होता है स्वादिष्ठान चक्र जो है उसके लिए हल्का नीला रंग जो हमें भस्म से प्राप्त होता है हृदय के चक्र का रंग हरा जो हमें हरी साहब सब्जी से मिलता है जैसे पालक बथुआ नाभि चक्र जो है जिसको नेवल चक्र कहते हैं इसमें सुनहरा रंग होता है जो हमें केसर और गाजर से मिलता है सेक्स और बेसिक चक्र क्रमशः पीला और नारंगी पीला रंग यह हमें हल्दी और टेसू के फूलों के रंग से मिलता है इन सभी का प्रयोग हमारे शरीर की अति आवश्यक है जो हमें इन चक्रों को ठीक रखने में मदद करता है ताकि किसी भी रोग से हम ग्रसित ना हो

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