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‘काका रामचरन की पैलगी’

: पंडित राधाकृष्ण शुक्ला , लखनऊ

काका रामचरन रोज सुबह सुबह उठ जाते थे। उम्र ही ऐसी हो चली है कि कुकुर निंदिया के अलावा गहरी नींद सोए हुए शायद जमाना हो गया होगा। ऊपर से बैसाखी ठुनकी, घर परिवार वालों की और जान खाये हुए रहती थी। रात हो चाहे दिन काका की खांसी की ठुनकी, बिना रुके सबको जगाती ही रहती थी। वैसे चोर और उठाईगीरों की हिम्मत, काका के सहन से एक तिनका भी उठाने की नहीं पड़ती।

काका की एक और हरकत जो घर मुहल्ले वालों को सजगता के साथ दिन और रात में कई बार परेशान करती। वह थी काका की खैनी की ताल। हथेली पर खैनी और चूना रखकर इतना मलते, इतना मलते कि खैनी चूरन बन जाती और फिर जब ताल देते तो उसकी उड़ने वाली झार लोगों की नाक में पहुंच कर उन्हें कई कई बार छींकने को मजबूर कर देती।

खैनी की झार से परेशान काका की सहेली पुरबिनि काकी, काका को धाराप्रवाह गरियाती रहती और काका हरदम मुस्कुराते ही रहते। बड़ा अंदरूनी मेलमिलाप जो था। काकी की गारी सुने बिना काका प्रफुल्लित ही न हो पाते।

ऐसे काका रामचरन सुबह सुबह तड़के उठकर, दिशा मैदान, कुल्ला दातुन से निवृत होकर और चाय पानी पीकर घर के सामने चारपाई डालकर हल्के हलके हलके खांसते हुए बैठ जाते। हर आने जाने वाले की पैलगी स्वीकारते और गांव के पिछले दिन के हल्के फुल्के समाचार भी लेते रहते। ऐसा समझ लीजिए कि काका के सारे संवाददाता पूरी खबरें उन तक पहुंचा देते। फिर उन्हीं खबरों को काका नमक मिर्च लगाकर आगे परोसते रहते।

तभी गांव का एक नौधा पट्ठा मैकू काका के सामने से गुजरा। न दुआ की न ही पैलगी की। काका उसकी इस हरकत से हैरान हो गए। अंदर अंदर ही भुकुर उठे। मन में ही दो चार गाली दे डाली। ससुरा कल का लौंडा बिना पैलगी किये ही निकला जा रहा।

तभी मैकू जैसे ही काका को बिना पैलगी किये कुछ थोड़ा और आगे बढ़ा, काका उसपर गरज पड़े। हालांकि उनकी गरज को खांसी की ठुनकी ने कुछ मुलायम कर दिया था। काका ने उसी गरजते हुए अंदाज में कहा कि कै रे मैकुआ, आज फटही पनही जैसा मुंह लटकाए कहाँ चला जा रहा है। मेहरिया ने कल रात खाना दाना नहीं दिया का।

काका की ऐसी ऐंठदार आवाज सुनते ही मैकू सकपका गया। उसे अपनी भूल का कुछ भान भी हुआ और यह सोचकर कि बर्र के छत्ते में तो उंगली घुस ही चुकी है, उसने तुरंत ही काका पांयलागी शब्द अपने मुंह से समझो थूक ही दिया।

मैकू के पांयलगी कहने के तरीके और शब्द उच्चारण से काका मन ही मन और तमतमाय गए। लेकिन कुछ कर तो सकते नहीं थे। मैकू,उनकी प्रिय मुंहलगी पड़ोसिन भौजी काकी पुरबिनि का छुटका बेटा जो था। दबी जबान और ठुनकी खांसी की ओट लेकर जूते रहो औ जहां हो वहीं रहो बच्चा। बुजुर्गों का ख्याल रखा करो।

इतना सब कुछ काकी ने सुन लिया। फिर क्या था। कर्कश आवाज में बोली यह बुढ़वा देखो हमरे बेटवा को कैसा आशीर्वाद दिया। यह नासिकाटा बुढ़वा न मरी न माचा छोड़ी।
काका रामचरन मुस्कुरा कर इस शब्दबाण को बखूबी झेल लिए।

फिर भी काकी प्रेमवश दोपहर को एक कटोरेभर दूध वाली खीर काका रामचरन को खिला रही थीं।

अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे। ऐसे ग्रामीण परिवेश का आनन्द बखान के बाहर है।

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